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बंटवारे में बर्बाद होकर बेचने लगे थे ‘मिठास’, मां ने ‘जौहर’ दिखाकर यूं दिलाया ‘यश’

Yash Johar Unknown Facts: 6 सितंबर 1929 के दिन अविभाजित भारत के लाहौर (अब पाकिस्तान का हिस्सा) में जन्मे यश जौहर किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं, लेकिन देश के बंटवारे का दर्द उन्हें भी झेलना पड़ा था. यूं कह लीजिए कि लाखों लोगों की तरह वह भी बंटवारे में बर्बाद हो गए थे. बर्थ एनिवर्सरी स्पेशल में हम आपको बता रहे हैं कि सिनेमा की दुनिया में इस ‘जौहर’ को ‘यश’ कैसे मिला? 

बंटवारे ने बदल दी थी दुनिया

देश के बंटवारे के बाद यश जौहर का पूरा परिवार लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गया था. उस दौरान उनके पिता ने मिठाई की दुकान खोली. उस वक्त यश जौहर अपने नौ भाई-बहनों में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे, जिसके चलते दुकान पर हिसाब-किताब की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी गई. हालांकि, लिखा-पढ़ी के इस काम में यश का मन कतई नहीं लगता था. 

मां के ‘जौहर’ ने दिलाया ‘यश’

कहा जाता है कि हर कामयाब आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है और यश जौहर की जिंदगी में वह औरत उनकी मां थीं. वह जानती थीं कि यश जौहर मुंबई जाना चाहते हैं और वहां अपनी जिंदगी संवारना चाहते हैं. ऐसे में उन्होंने घर से गहने और पैसे गायब करके यश को दे दिए, जिससे वह मुंबई जा सकें. बता दें कि इस मामले का पूरा शक घर में तैनात सिक्योरिटी गार्ड पर किया गया था और उसकी पिटाई भी हुई थी.

एक तस्वीर ने बदल दी तकदीर

मुंबई में यश जौहर ने काफी संघर्ष किया, लेकिन एक तस्वीर ने उनकी तकदीर बदल दी. हुआ यूं था कि मुंबई पहुंचने के बाद वह टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में फोटोग्राफर बनना चाहते थे, लेकिन बात नहीं बन पा रही थी. यह वह दौर था, जब मधुबाला किसी को भी अपनी तस्वीर खींचने की इजाजत नहीं देती थीं. कहा जाता है कि यश जौहर ने अपनी फर्राटेदार अंग्रेजी से मधुबाला का दिल जीत लिया और इससे इम्प्रेस होकर एक्ट्रेस ने यश को अपनी तस्वीर खींचने की इजाजत दे दी. यश जौहर ने वह तस्वीर टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस में दिखाई तो उन्हें तुरंत नौकरी मिल गई. कुछ समय तक नौकरी करने के बाद वह देवानंद के प्रॉडक्शन हाउस से जुड़े. वहीं, साल 1977 के दौरान उन्होंने धर्मा प्रॉडक्शंस की नींव रखकर बॉलीवुड को कई बेशकीमती नगीने दे दिए.

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Aslam Khan

हर बड़े सफर की शुरुआत छोटे कदम से होती है। 14 फरवरी 2004 को शुरू हुआ श्रेष्ठ भारतीय टाइम्स का सफर लगातार जारी है। हम सफलता से ज्यादा सार्थकता में विश्वास करते हैं। दिनकर ने लिखा था-'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।' कबीर ने सिखाया - 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर'। इन्हें ही मूलमंत्र मानते हुए हम अपने समय में हस्तक्षेप करते हैं। सच कहने के खतरे हम उठाते हैं। उत्तरप्रदेश से लेकर दिल्ली तक में निजाम बदले मगर हमारी नीयत और सोच नहीं। हम देश, प्रदेश और दुनिया के अंतिम जन जो वंचित, उपेक्षित और शोषित है, उसकी आवाज बनने में ही अपनी सार्थकता समझते हैं। दरअसल हम सत्ता नहीं सच के साथ हैं वह सच किसी के खिलाफ ही क्यों न हो ? ✍असलम खान मुख्य संपादक

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