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वो शख्स जिसने रखी थी भारतीय सिनेमा की नींव, जुगाड़ से बनी थी पहली फिल्म, जानें कौन थे वो

Dadasaheb Phalke Birth Anniversary: आज के दौर में हम एक से बढ़कर एक फिल्में देख रहे हैं. तकनीकों से भरी इन फिल्मों को देखकर लोग आनंद लेते हैं. मनोरंजन का बड़ा साधन ये फिल्में ही हैं लेकिन क्या आपको पता है कि इसकी शुरुआत किसने की थी? भारत में पहली फिल्म कब बनी, किसने बनाई और कैसे बनाई थी? जिस शख्स ने भारतीय सिनेमा की नींव रखी थी उनका नाम दादासाहेब फाल्के था जो भारतीय सिनेमा के पहले निर्देशक-निर्माता थे.

दादासाहेब फाल्के ने साल 1913 में भारतीय सिनेमा की शुरुआत की थी. भारत सरकार ने उनकी याद में ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ रखा. ये पुरस्कार उन लोगों को मिलता है जो छोटे और बड़े पर्दे पर अपने काम को बेहतरीन तरीके से करते हैं. दादासाहेब फाल्के कौन थे, उन्हें सिनेमा का आइडिया कैसे आया, इसके पीछे भी दिलचस्प किस्सा है.

दादासाहेब फाल्के का फैमिली बैकग्राउंड

30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक शहर के त्रिम्बक जिले में दादा साहेब फाल्के का जन्म हुआ था. फाल्के का असली नाम धुंधीराज गोविंद फाल्के था जो एक मराठी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखते थे. उनके पिता गोविंद सदाशिव फाल्के नासिक के जाने-माने विद्वान थे और उन्होंने अपने बेटे धुंधीराज गोविंद को भी कई विद्याएं सिखाईं थीं. फाल्के को बचपन से ही कला में रुचि रही और वो कला के क्षेत्र में ही कुछ करना चाहते थे.

फाल्के ने 1885 में जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में एडमिशन लिया और वहां से लगभग 5 साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1890 में वडोदरा के राजा सियाचिराव के कला भवन में एडमिशन लिया. यहां फाल्के ने चित्रकला और फोटोग्राफी सीखी. इसके बाद उन्होंने फोटोग्राफरी में ही काम शुरू किया.

1885 में ही दादासाहेब फाल्के की शादी हुई थी लेकिन जब वो फोटोग्राफी का काम करना शुरू कर चुके थे तो उसके कुछ समय बाद 1900 में उनकी वाइफ और बच्चे का निधन हो गया और उन्हें काम छोड़ना पड़ा था. पत्नी और बच्चे के जाने से फाल्के बहुत टूट गए थे लेकिन जब वो इस सदमे से बाहर आए तो फिर से काम करने के बारे में सोचने लगे.

दादासाहेब फाल्के ने कैसे बनाई पहली फिल्म?

दादासाहेब फाल्के जब अंग्रेजी फिल्में देखते थे तब उनके मन में ख्याल आता था कि भारतीय संस्कृति पर भी फिल्में बननी चाहिए. लेकिन फिल्में बनती कैसे हैं इसका उन्हें कोई आइडिया नहीं था. उन्हीं दिनों फाल्के की मुलाकात जर्मन मैजिशियन से हुई जिसने उन्हें फोटोग्राफी के और भी ट्रिक सिखाए जिससे वो फिल्म बना सकते थे. फिर भी फिल्म बनाने के लिए इतना काफी नहीं था. साल 1912 में किसी तरह जुगाड़ करके फाल्के लंदन गए. यहां वो सबसे पहले वीकली मैगजीन के एडिटर से मिले, और उस एडिटर ने फाल्के को एक निर्देशक-निर्माता से मिलवाला जो उस दौर में फेमस थे.

करीब 3 महीने वहां रहने के बाद फाल्के ने फिल्में कैसे शूट होती हैं, कैसे लिखी जाती हैं, और क्या-क्या होता है सबकुछ सीखकर वापस भारत आ गए. फाल्के का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ था क्योंकि सारा पैसा खत्म हो गया था तो फिल्म कैसे बनाई जाए. इसलिए उनकी दूसरी वाइफ सरस्वती फाल्के ने उन्हें अपने गहने दिए जिन्हें बेचकर फाल्के ने पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र (1913) बनाई.

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ये फिल्म बनाना आसान नहीं था क्योंकि हरिश्चंद्र के लिए एक्टर मिल गया लेकिन महारानी तारामती का रोल करने के लिए कोई नहीं मिला. दरअसल, उस दौर में महिलाएं फिल्में करना तो दूर देखना भी नापसंद करती थीं. बहुत सोच के बाद फाल्के एक आदमी को बुलाकर लाए जिसे वो जानते थे और उसे रानी का रोल दे दिया. ये आदमी उस होटल में रसोइया था जहां फाल्के अक्सर खाना खाने जाया करते थे.

21 अप्रैल 1913 को भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र थी. इस फिल्म का निर्देशन, निर्माण, स्टोरी, कैमरामैन और भी बाकी जितने काम थे वो सबकुछ दादासाहेब फाल्के ने अकेले ही किये थे. ऐसा इसलिए क्योंकि किसी को पता ही नहीं था कि फिल्में कैसे बनती हैं. बताया जाता है कि भारतीय बहुत खुश थे और वो फिल्म करीब 23 दिन कुछ थिएटर्स में चलीं.

दादासाहेब फाल्के की फिल्में

दादासाहेब फाल्के ने ‘हिंदुस्तान फिल्म्स’ नाम का एक प्रोडक्शन हाउस खोला जिसमें मुंबई के कुछ उद्योगपतियों के पैसे लगे थे. उन्होंने हमेशा पौराणिक कथाओं पर आधारित फिल्में बनाने पर जोर दिया. उन्होंने ‘लंका दहन’, ‘मोहिनी भस्मासुर’, ‘कालिया मरदन’, ‘कृष्णा’ जैसी फिल्में बनाईं और ये सभी मूक फिल्में थीं.

समय बीतता गया और लोग इस लाइन से जुड़ने लगे बोलने वाली फिल्में आईं. बाद में फाल्के ने ‘हिंदुस्तान फिल्म्स’ से इस्तीफा दे दिया और फिल्में बनाना भी बंद कर दिया. फाल्के ने एक-दो बोलने वाली फिल्में ही बनाई थीं जिसके बाद उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा.

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दादासाहेब फाल्के का निधन

जब फिल्म इंडस्ट्री में अलग-अलग लोग आए तो वो अपने हिसाब से फिल्में बनाने लगे. फाल्के को कई लोगों ने पुराने जमाने का कहकर छोड़ दिया. अंतिम दिनों में वो काफी अकेले हो गए थे, हालांकि उन्हें इस बात की खुशी थी कि जो वो करना चाहते थे वो उन्होंने किया.

16 फरवरी 1944 को दादासाहेब फाल्के का निधन हो गया था. बाद में आजादी की लड़ाई हुई और लोगों ने उन्हें भुला दिया. हालांकि, साल 1969 में भारत सरकार ने उन्हें फिर याद किया और ‘दादासाहेब फाल्के पुरस्कार’ की घोषणा की. तब से अब तक करीब 54 कलाकारों को ‘दादासाहेब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है.

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Aslam Khan

हर बड़े सफर की शुरुआत छोटे कदम से होती है। 14 फरवरी 2004 को शुरू हुआ श्रेष्ठ भारतीय टाइम्स का सफर लगातार जारी है। हम सफलता से ज्यादा सार्थकता में विश्वास करते हैं। दिनकर ने लिखा था-'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।' कबीर ने सिखाया - 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर'। इन्हें ही मूलमंत्र मानते हुए हम अपने समय में हस्तक्षेप करते हैं। सच कहने के खतरे हम उठाते हैं। उत्तरप्रदेश से लेकर दिल्ली तक में निजाम बदले मगर हमारी नीयत और सोच नहीं। हम देश, प्रदेश और दुनिया के अंतिम जन जो वंचित, उपेक्षित और शोषित है, उसकी आवाज बनने में ही अपनी सार्थकता समझते हैं। दरअसल हम सत्ता नहीं सच के साथ हैं वह सच किसी के खिलाफ ही क्यों न हो ? ✍असलम खान मुख्य संपादक

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