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बुजुर्ग दंपति ने किया इच्छा मृत्यु का विरोध ! जाने पूरा सच !

नई दिल्ली : देश की सबसे बड़ी अदालत ने जीवन की तुलना ‘दिव्य ज्योति’ से करते हुए इसके सम्मान की बात की और मृत्यु को जीने की प्रक्रिया का हिस्सा बताया। जजों ने अपना फैसला सुनाते हुए स्वामी विवेकानंद के कथनों के साथ ही मशहूर कवियों की कविताओं का भी जिक्र किया। सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु की अनुमति देते हुए कहा कि जब सम्मान के साथ जीने का अधिकार दिया जा सकता है तो सम्मान के साथ मरने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए।

एक ऐतिहासिक फैसले में शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को चिकित्सकीय उपचार से इनकार करने के लिए अग्रिम निर्देश देने के लिए, निष्पक्ष इच्छामृत्यु और व्यक्तियों का अधिकार, जिसमें बीमारी भी शामिल है, उसको सूचित किया।

हमें अपनी इच्‍छा से बिना असहनीय दुख-दर्द सहन किए मरने का अधिकार नहीं होना चाहिए? मुंबई शहर की एक दंपति इसी अधिकार की मांग कर रहा है। मुंबई के चारणी रोड के समीप स्थित ठाकुरद्वार में रहने वाले वयोवृद्ध दंपति नारायण लावते (88) और उनकी पत्नी इरावती (78) का कहना है कि किसी गंभीर रोग से उनके ग्रसित होने तक उन्हें मृत्यु का इंतजार करने के लिए मजबूर करना अनुचित है। इन्‍होंने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर इच्छा मृत्यु की मांग की है। इनका तर्क है कि जब मौत की सजा का सामना कर रहे लोगों के प्रति दया दिखाने की राष्ट्रपति के पास शक्तियां हैं, तब राष्ट्रपति हमें अपना जीवन समाप्त करने की इजाजत देकर हम पर दया क्‍यों नहीं कर सकते?

कोर्ट के फैसले से के बाद यह सवाल भी उठ रहा है कि असाध्य बीमारियों से जूझ रहे लोगों पर कहीं इच्छा-मृत्यु की वसीयत लिखने का पारिवारिक दवाब तो नहीं आ जाएगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले का दुरुपयोग रोकने के लिए गाइडलांस भी जारी की हैं

केंद्र सरकार का कहना है कि सरकार अभी इच्छा मृत्यु से जुड़े सभी पहलुओं पर विचार कर रही है और इस मामले पर सुझाव भी मांगे गए हैं। आपको बता दें कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में इच्छा मृत्यु का विरोध करते हुए कहा था कि वह लिविंग विल का विरोध करती है लेकिन पैसिव यूथेनेसिया को कुछ सुरक्षा मानकों के साथ मंजूर कर सकती है। केंद्र ने यह भी कहा कि इसके लिए सुरक्षा मानकों के साथ ड्राफ्ट बिल तैयार है।

मरीज को मारने के लिए इंजेक्शन का प्रयोग किया जाता है। जबकि दूसरे तरीके को पैसिव यूथेनेसिया कहा जाता है जिसमें मरीज की जान बचाने के लिए कुछ नहीं किया जाता है।

हमारा समाज लगातार बदल रहा है। हजारों दंपति ऐसे हैं, जिनकी कोई संतान नहीं होगी। ऐसे लोगों का बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं होता। क्‍या बदलते भारतीय सामाजिक ढांचे को ध्‍यान में रखते हुए कानून में बदलाव नहीं होने चाहिए? अगर कोई उम्र के एक पड़ाव पर आकर गंभीर रोगों से ग्रसित हो जाता है, तो क्‍या उसे इच्‍छामृत्‍यु की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए? लावते दंपति जैसे लोगों को क्‍या सम्‍मान से मरने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए? क्‍या सरकार को ऐसे दंपतियों के अकेलेपन को दूर करने के लिए कोई ठोस योजना नहीं बनानी चाहिए? ऐसी योजना जिससे इच्‍छामृत्‍यु की मांग करने वालों के मन में जीने की चाह मरे नहीं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनपर गंभीर चिंतन की आवश्‍यकता है।

मृत्यु और मौत का मुद्दा कानून की सीमाओं से पार हो गया, लेकिन कोर्ट ने हस्तक्षेप किया क्योंकि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का भी चिंतित है। जीवन और मृत्यु को अलग नहीं किया जा सकता। हर क्षण हमारे शरीर में बदलाव होता है। बदलाव एक नियम है। जीवन को मौत से अलग नहीं किया जा सकता। मृत्यु जीने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है।

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